रमा एकादशी

सनातन धर्म में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी रमा एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण के दामोदर स्वरूप के पूजन का विधान है।
 
कार्तिक का महीना भगवान विष्णु को समर्पित होता है। हालांकि भगवान विष्णु इस समय शयन कर रहे होते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही वे चार मास बाद जागते हैं। लेकिन कृष्ण पक्ष में जितने भी त्यौहार आते हैं उनका संबंध किसी न किसी तरीके से माता लक्ष्मी से भी होता है। दिवाली पर तो विशेष रूप से लक्ष्मी पूजन तक किया जाता है। इसलिये माता लक्ष्मी की आराधना कार्तिक कृष्ण एकादशी से ही उनके उपवास से आरंभ हो जाती है। माता लक्ष्मी का एक अन्य नाम रमा भी होता है इसलिये इस एकादशी को रमा एकादशी भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार जब युद्धिष्ठर ने भगवान श्री कृष्ण से कार्तिक मास की कृष्ण एकादशी के बारे में पूछा तो भगवन ने उन्हें बताया कि इस एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता है। इसका व्रत करने से जीवन में सुख समृद्धि और अंत में बैकुंठ की प्राप्ति होती है।

रमा एकादशी पौराणिक कथा
 
युद्धिष्ठर की जिज्ञासा को शांत करते हुए भगवान श्री कृष्ण रमा एकादशी की कथा कहते हैं। बहुत समय पहले की बात है एक मुचुकुंद नाम के राजा हुआ करते थे। बहुत ही नेमी-धर्मी राजा थे और भगवान विष्णु के भक्त भी। उनकी एक कन्या भी थी जिसका नाम था चंद्रभागा। चंद्रभागा का विवाह हुआ चंद्रसेन के पुत्र शोभन से। कार्तिक मास की दशमी की बात है कि शोभन अपनी ससुराल आये हुए थे। संध्याकाल में राजा ने मुनादी करवादी कि एकादशी को राज्य में उपवास किया जायेगा, कोई भी भोजन ग्रहण न करे। अब शोभन के लिये यह बड़ी मुश्किल की घड़ी थी क्योंकि शोभन ने कभी उपवास किया ही नहीं था दूसरा उससे भूख सहन नहीं होती थी। उसने अपनी समस्या को चंद्रभागा के सामने रखा तो उसने कहा कि हमारे राज्य में मनुष्य तो क्या पालतु जीव जंतुओं तक भोजन ग्रहण करने की अनुमति नहीं होती। तब विवश होकर शोभन उपवास के लिये तैयार हो गया लेकिन पारण के दिन का सूर्योदय वह नहीं देख पाया और उसने प्राण त्याग दिये। राजसी सम्मान के साथ उसका संस्कार किया गया लेकिन चंद्रभागा ने उसके साथ स्वयं का दाह नहीं किया और अपने पिता के यहां ही रहने लगी। उधर एकादशी के व्रत के पुण्य से शोभन को मंदरांचल पर्वत पर कुबेर जैसा आलिशान और दिव्य राज्य प्राप्त हुआ। एक बार मुचुकुंदपुर के विप्र सोम तीर्थ यात्रा करते-करते उस दिव्य नगर में जा पंहुचे। उन्होंने सिंहासन पर विराजमान शोभन को देखते ही पहचान लिया। फिर क्या था वे उनके सामने जा पंहुचे उधर ब्राह्मण को आता देख उनके सम्मान में शोभन भी सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। उन्हें पहचान कर शोभन ने चंद्रभागा और अपने ससुर व राज्य की कुशलक्षेम पूछी। इसके बाद सोम ने जिज्ञासा प्रकट की कि यह सब कैसे संभव हुआ तब शोभन ने रमा एकादशी के प्रताप का बखान किया लेकिन चिंता प्रकट की कि मैने विवशतावश यह उपवास किया था इसलिये मुझे शंका है कि यह सब स्थिर नहीं है। आप यह वृतांत चंद्रभागा के सामने जरूर कहना। अपनी तीर्थ यात्रा से लौटने के बाद सोम सीधे चंद्रभागा से मिलने पंहुचे और सारा हाल कह सुनाया। चंद्रभागा बहुत खुश हुई और जल्द ही अपने पति के पास जाने का उपाय जानने लगी। सोम उसे वाम ऋषि के आश्रम ले गये वहां महर्षि के मंत्र और चंद्रभागा द्वारा किये गये एकादशी व्रत के पुण्य से वह दिव्यात्मा हो गई और मंदरांचल पर्वत पर अपने पति के पास जा पंहुची और अपने एकादशी व्रतों के पुण्य का फल शोभन को देते हुए उसके सिंहासन व राज्य को चिरकाल के लिये स्थिर कर दिया और स्वयं भी शोभन के वामांग विराजी।

इस प्रकार हे कुंते रमा एकादशी का व्रत बहुत ही फलदायी है। जो भी इस व्रत को विधिपूर्वक करते हैं वे ब्रह्महत्या जैसे पाप से भी मुक्त हो जाते हैं।

रमा एकादशी व्रत एवं पूजा विधि

रमा एकादशी का व्रत दशमी की संध्या से ही आरंभ हो जाता है। दशमी के दिन सूर्यास्त से पहले ही भोजन ग्रहण कर लेना चाहिये। इसके बाद एकादशी के दिन प्रात: काल उठकर स्नानादि कर स्वच्छ होना चाहिये। इस दिन भगवान विष्णु के पूर्णावतार भगवान श्री कृष्ण की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प एवं फलों से पूजा की जाती है। इस दिन तुलसी पूजन करना भी शुभ माना जाता है। इस दिन पूरी श्रद्धा एवं भक्ति से किये उपवास पुण्य चिरस्थायी होता है और भगवान भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है।

एक अध्ययन के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।
 
लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
 
अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।

शोध के अनुसार खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। रात्रि 10 से 12 बजे तक का समय उपयुक्त रहता है।

शरद पूर्णिमा की कथा

एक प्राचीन कथा के अनुसार, एक साहूकार की दो बेटियां थीं. वह दोनों ही पूर्णिमा का व्रत भक्ति-भाव से रखती थीं. लेकिन एक बार बड़ी बेटी ने तो पूर्णिमा का विधिपूर्वक व्रत किया लेकिन छोटी बेटी ने व्रत छोड़ दिया. इस कारण छोटी बेटी के बच्चों की जन्म लेते ही मृत्यु होने लगी. फिर साहूकार की बड़ी बेटी के पुण्य स्पर्श से छोटी बेटी का बच्चा जीवित हो उठा. कहा जाता है कि तभी से यह व्रत विधिपूर्वक किया जाता है.


शरद पूर्णिमा पर ऐसे करें पूजा

शरद पूर्णिमा को लेकर एक और मान्यता के मुताबिक इस दिन माता लक्ष्मी का जन्म हुआ था. और एक समय इस रात धन की लक्ष्मी ने आकाश में विचरण करते हुए कहा था कि 'को जाग्रति'. संस्कृत में 'को जाग्रति' का अर्थ है 'कौन जगा हुआ है'. ऐसा माना जाता है कि जो भी शरद पूर्णिमा के दिन और रात को जगा रहता है माता लक्ष्मी उनपर अपनी खास कृपा बरसाती हैं. इस मान्यता के चलते ही शरद पूर्णिमा को 'कोजागर पूर्णिमा' (Kojagar Purnima) भी कहा जाता है.

शरद पूर्णिमा पर माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इस दिन सुबह स्नान करने के बाद एक साफ चौकी पर लाल रंग का कपड़ा बिछाना चाहिए. इसके बाद मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करें. अब माता लक्ष्मी की विधि-विधान के साथ पूजा-अर्चना करनी चाहिए. इसके बाद स्तोत्र का पाठ भी करना चाहिए. कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा के दिन इस स्तोत्र का पाठ करने से देवी लक्ष्मी भक्तों पर अपनी कृपा बरसाती हैं.

प्रदोष व्रत

हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रदोष व्रत कलियुग में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करनेवाला होता है। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है। मान्यता है कि प्रदोष के समय महादेव कैलाश पर्वत के रजत भवन में इस समय नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। जो भी लोग अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है। सप्ताह के सातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व है। प्रदोष व्रत भगवान शिव के साथ चंद्रदेव से भी जुड़ा है। मान्यता है कि प्रदोष का व्रत सबसे पहले चंद्रदेव ने ही किया था। माना जाता है शाप के कारण चंद्र देव को क्षय रोग हो गया था। तब उन्होंने हर माह में आने वाली त्रयोदशी तिथि पर भगवान शिव को समर्पित प्रदोष व्रत रखना आरंभ किया था। जिसके शुभ प्रभाव से चंद्रदेव को क्षय रोग से मुक्ति मिली थी।




प्रदोष व्रत विधि के अनुसार दोनों पक्षों की प्रदोषकालीन त्रयोदशी को मनुष्य निराहार रहे। निर्जल तथा निराहार व्रत सर्वोत्तम है परंतु अगर यह संभव न हो तो नक्तव्रत करे। पूरे दिन सामर्थ्यानुसार या तो कुछ न खाये या फल ले। अन्न पूरे दिन नहीं खाना। सूर्यास्त के कम से कम 72 मिनट बाद हविष्यान्न ग्रहण कर सकते हैं। शिव पार्वती युगल दम्पति का ध्यान करके पूजा करके। प्रदोषकाल में घी के दीपक जलायें। कम से कम एक अथवा 32 अथवा 100 अथवा 1000 ।

पौराणिक मान्यता

इस व्रत के महात्म्य को गंगा के तट पर किसी समय वेदों के ज्ञाता और भगवान के भक्त सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूतजी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य धर्म के आचरण से हटकर अधर्म की राह पर जा रहा होगा,हर तरफ अन्याय और अनाचार का बोलबाला होगा। मानव अपने कर्तव्य से विमुख होकर नीच कर्म में संलग्न होगा उस समय प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव को शिव की कृपा का पात्र बनाएगा और नीच गति से मुक्त होकर मनुष्य उत्तम लोक को प्राप्त होगा। सूत जी ने शौनकादि ऋषियों को यह भी कहा कि प्रदोष व्रत से पुण्य से कलियुग में मनुष्य के सभी प्रकार के कष्ट और पाप नष्ट हो जाएंगे। यह व्रत अति कल्याणकारी है इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य को अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस व्रत में अलग-अलग दिन के प्रदोष व्रत से क्या लाभ मिलता है यह भी सूत जी ने बताया। 

  • रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा नीरोग रहेंगे। 
  • सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलितहोती है। 
  • मंगलवार कोप्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं।
  • बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होतीहै। 
  • बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है। शुक्र प्रदोष व्रत सेसौभाग्य की वृद्धि होती है। 
  • शनि प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है।

सूत जी ने शौनकादि ऋषियों को बताया कि इस व्रत के महात्मय को सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता सती को सुनाया था। मुझे यही कथा महात्मय महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया और यह उत्तम व्रत महात्म्य मैने आपको सुनाया है। प्रदोष व्रत विधानसूत जी ने कहा है प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात रात्रि के आने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में महादेव भोले शंकर की पूजा की जाती है। इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है। प्रात: काल स्नान करके भगवान शिव की बेल पत्र, गंगाजल अक्षत धूप दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।

प्रदोष व्रत पूजा विधि

प्रदोष व्रत करने के लिए जल्दी सुबह उठकर सबसे पहले स्नान करें और भगवान शिव को जल चढ़ाकर भगवान शिव का मंत्र जपें। इसके बाद पूरे दिन निराहार रहते हुए प्रदोषकाल में भगवान शिव को शमी, बेल पत्र, कनेर, धतूरा, चावल, फूल, धूप, दीप, फल, पान, सुपारी आदि चढ़ाएं। 

पापाकुंशा एकादशी

हिन्दी पंचांग के अनुसार आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को पापांकुशा एकादशी के नाम से जाना जाता है। हर एकादशी की ही तरह इस एकादशी पर भी इस दिन सृष्टि के रचयिता भगवान विष्‍णु की पूजा और मौन रहकर भगवद् स्मरण तथा भजन-कीर्तन करने का विधान है. मान्‍यता है कि इस तरह भगवान की आराधना करने से भक्‍त का मन शुद्ध होता है और उसमें सदगुणों का समावेश होता है. पाप रूपी हाथी को व्रत के पुण्य रूपी अंकुश से बेधने के कारण ही इसका नाम पापकुंशा एकादशी हुआ। मान्‍यता है कि इस एकादशी के व्रत के प्रभाव से मनुष्‍य के संचित पाप नष्‍ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्‍ति होती है.हजारों अश्वमेघ यज्ञों और सैकड़ों सूर्य यज्ञों के बाद भी इस व्रत का 16वां भाग जितना फल भी नहीं मिलता. कहते हैं कि इस दिन उपवास रखने से पुण्य फलों की प्राप्ति होती है और स्‍वर्ग का मार्ग प्रशस्‍त होता है. वहीं, जो लोग पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक समय भोजन करके एकादशी व्रत करने का विधान कहा गया है. पापांकुशा एकादशी का व्रत अत्‍यंत फलदायी है और इस दिन सच्‍ची भक्ति और यथाशक्ति दान-दक्षिणा करने से से व्‍यक्ति पर श्री हरि विष्‍णु की विशेष कृपा बरसती है.




महाभारत काल में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को पापाकुंशा एकादशी का महत्व बताया। धर्मराज युधिष्ठिर ने इसके विषय में पुरषोत्तम श्री कृष्ण से पूछते हुए कहा की हे भगवान ! आश्विन शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? अब आप कृपा करके इसकी विधि तथा फल कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! पापों का नाश करने वाली इस एकादशी का नाम पापांकुशा एकादशी है। हे राजन! इस दिन मनुष्य को विधिपूर्वक भगवान पद्‍मनाभ की पूजा करनी चाहिए। यह एकादशी मनुष्य को मनवांछित फल देकर स्वर्ग को प्राप्त कराने वाली है।

मनुष्य को बहुत दिनों तक कठोर तपस्या से जो फल मिलता है, वह फल भगवान गरुड़ध्वज को नमस्कार करने से प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य अज्ञानवश अनेक पाप करते हैं परंतु हरि को नमस्कार करते हैं, वे नरक में नहीं जाते। विष्णु के नाम के कीर्तन मात्र से संसार के सब तीर्थों के पुण्य का फल मिल जाता है। जो मनुष्य शार्ङ्‍ग धनुषधारी भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं, उन्हें कभी भी यम यातना भोगनी नहीं पड़ती।

जो मनुष्य वैष्णव होकर शिव की और शैव होकर विष्णु की निंदा करते हैं, वे अवश्य नरकवासी होते हैं। सहस्रों वाजपेय और अश्वमेध यज्ञों से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी के व्रत के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होता है। संसार में एकादशी के बराबर कोई पुण्य नहीं। इसके बराबर पवित्र तीनों लोकों में कुछ भी नहीं। इस एकादशी के बराबर कोई व्रत नहीं। जब तक मनुष्य पद्‍मनाभ की एकादशी का व्रत नहीं करते हैं, तब तक उनकी देह में पाप वास कर सकते हैं।

हे राजेन्द्र! यह एकादशी स्वर्ग, मोक्ष, आरोग्यता, सुंदर स्त्री तथा अन्न और धन की देने वाली है। एकादशी के व्रत के बराबर गंगा, गया, काशी, कुरुक्षेत्र और पुष्कर भी पुण्यवान नहीं हैं। हरिवासर तथा एकादशी का व्रत करने और जागरण करने से सहज ही में मनुष्य विष्णु पद को प्राप्त होता है। हे युधिष्ठिर! इस व्रत के करने वाले दस पीढ़ी मातृ पक्ष, दस पीढ़ी पितृ पक्ष, दस पीढ़ी स्त्री पक्ष तथा दस पीढ़ी मित्र पक्ष का उद्धार कर देते हैं। वे दिव्य देह धारण कर चतुर्भुज रूप हो, पीतांबर पहने और हाथ में माला लेकर गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को जाते हैं।

हे नृपोत्तम! बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में इस व्रत को करने से पापी मनुष्य भी दुर्गति को प्राप्त न होकर सद्‍गति को प्राप्त होता है। आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की इस पापांकुशा एकादशी का व्रत जो मनुष्य करते हैं, वे अंत समय में हरिलोक को प्राप्त होते हैं तथा समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। सोना, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, छतरी तथा जूती दान करने से मनुष्य यमराज को नहीं देखता।

जो मनुष्य किसी प्रकार के पुण्य कर्म किए बिना जीवन के दिन व्यतीत करता है, वह लोहार की भट्टी की तरह साँस लेता हुआ निर्जीव के समान ही है। निर्धन मनुष्यों को भी अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए तथा धनवालों को सरोवर, बाग, मकान आदि बनवाकर दान करना चाहिए। ऐसे मनुष्यों को यम का द्वार नहीं देखना पड़ता तथा संसार में दीर्घायु होकर धनाढ्‍य, कुलीन और रोगरहित रहते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे राजन! जो आपने मुझसे मुझसे पूछा वह सब मैंने आपको बतलाया। अब आपकी और क्या सुनने की इच्छा है?

पापाकुंशा एकादशी व्रत कथा

प्राचीनकाल में विंध्य पर्वत पर क्रोधन नामक एक महाक्रूर बहेलिया रहता था। उसने अपनी सारी जिंदगी, हिंसा,लूट-पाट, मद्यपान और झूठे भाषणों में व्यतीत कर दी। जब उसके जीवन का अंतिम समय आया तब यमराज ने अपने दूतों को क्रोधन को लाने की आज्ञा दी। यमदूतों ने उसे बता दिया कि कल तेरा अंतिम दिन है।

मृत्यु भय से भयभीत वह बहेलिया महर्षि अंगिरा की शरण में उनके आश्रम पहुंचा। महर्षि ने दया दिखाकर उससे पापाकुंशा एकादशी का व्रत करने को कहा। इस प्रकार पापाकुंशा एकादशी का व्रत-पूजन करने से क्रूर बहेलिया को भगवान की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति हो गई।

कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कही जाती है। आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इसलिए इसे 'त्रिपुरी पूर्णिमा' भी कहते हैं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कार्तिक मास बारह मासों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। यह भगवान कार्तिकेय द्वारा की गई साधना का माह माना जाता है। इस कारण ही इसका नाम कार्तिक महीना पड़ा। इस दिन कार्तिकेय के पूजन का विशिष्ठ महत्व है। कहा जाता है कि कार्तिकेय को भगवान विष्णु द्वारा धर्म मार्ग को प्रबल करने की प्रेरणा दी गई है।कार्तिकेय ने इसी इसी आधार पर धर्मशास्त्र में भगवान विष्णु के दामोदर अवतार तथा अर्द्घांगिनी राधा का विशेष उल्लेख किया है।

कार्तिक पूर्णिमा को देवताओं की दीपावली भी माना गया है

सूर्य षष्ठी ( छठ पर्व )

सनातन धर्म में कार्तिक शुक्ल की षष्ठी तिथि को सूर्य षष्ठी ( छठ पर्व ) के रूप में मनाया जाता है। वैसे तो हिंदू धर्म में भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को भी सूर्य षष्ठी व्रत के रूप में मान्यता प्राप्त है परंतु कार्तिक शुक्ल की सूर्य षष्ठी "छठ" नाम से भारत में काफी लोकप्रिय है। "छठ" षष्टी का ही अपभ्रंश है अतः छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिंदू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है। दीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ का पर्व चार दिनों तक चलता है। इन चारों दिन श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके वर्षभर सुखी, स्वस्थ और निरोगी होने की कामना करते हैं। चार दिनों के इस पर्व के पहले दिन घर की साफ-सफाई की जाती है।यह व्रत बड़े नियम व निष्ठा से किया जाता है| इसमें तीन दिन के कठोर उपवास का विधान है| इस व्रत को करने वाली स्त्रियों को पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना पड़ता है| षष्ठी को निर्जल रहकर व्रत करना पड़ता है| षष्ठी को अस्त होते हुए सूरज को विधिपूर्वक पूजा करके अर्ध्य देते है| सप्तमी के दिन प्रातकाल नदी या तालाब पर जाकर स्नान करना होता है| सूर्य उदय होते ही अर्ध्य देकर जाल ग्रहण करके व्रत को खोलना होता है| 

भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है। तालाब में पूजा करते हैं।

देवता के रूप में सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारंभ हो गई, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है।
सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में होने लगी। इसने कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई गई। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसंधान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। संभवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।

सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से मध्य काल से वर्तमान काल तक भारत के साथ साथ विश्वभर मे प्रचलित व प्रसिद्ध हो गया है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली के तुरंत बाद मनाए जाने वाले इस चार दिवसीय व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्टी की होती है। इसी कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया। वैसे तो कार्तिक मास में भगवान सूर्य की पूजा करने का विधान है ही पर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में षष्ठी तिथि पर स्वास्थ्य से संबंधित समस्याएं न हों इसलिए सूर्य देव की विशिष्ट अराधना करने का विधान है क्योंकि इस समय सूर्य नीच राशि में होता है तथा विज्ञान की मानें तो कार्तिक मास में ऊर्जा और स्वास्थ्य को उच्च रखने के लिए सूर्य पूजन अवश्य करना चाहिए। वैसे तो प्रतिदिन दिन का आरंभ सूर्य उपासना से करना चाहिए, संभव न हो तो उनके प्रिय दिन रविवार को अवश्य ये काम करना चाहिए।सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अघ्र्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।

पौराणिक कथाएँ
छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं।

रामायण में 
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त कियाथा।

महाभारत में 
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।

पुराणों में 
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

एक अन्य पौराणिक कथा अनुसार कार्तिक शुक्ल षष्ठी के अस्ताचल सूर्य एवं सप्तमी को सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से प्रेषित होकर राजऋषि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र नामक यजुष का प्रसव हुआ था।भगवान सूर्य की आराधना करते हुए मन में गद्य यजुष की रचना की आकांक्षा लिए हुए विश्वामित्र के मुख से अनायास ही वेदमाता गायत्री प्रकट हुई थीं। ऐसे यजुष (ऐसा मंत्र जो गद्य में होते हुए भी पद्य जैसा गाया जाता है) को वेदमाता होने का गौरव प्राप्त हुआ था। यह पावन मंत्र प्रत्यक्ष देव आदित्य के पूजन, अर्घ्य का अद्भुत परिणाम था। तब से कार्तिक शुक्ल षष्ठी की तिथि परम पूज्य हो गई। 

छठ उत्सव का स्वरूप
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते। पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दूकी सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिनसे उपवास आरंभ होता है। इस दिन रात में खीर बनती है। व्रतधारी रात में यह प्रसाद लेते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्ज्य है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं। 

नहाय खाय
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।

लोहंडा और खरना
दूसरे दिन कार्तीक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।

संध्या अर्घ्य
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।

उषा अर्घ्य
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।

व्रत
छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।’

ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती हैं। किंतु पुरुष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं।

महालक्ष्मी पूजन विधि



दीपावली के दिन कैसे करें महालक्ष्मी का पूजन 


दीवाली के दिन की विशेषता लक्ष्मी जी के पूजन से संबन्धित है | इस दिन हर घर, परिवार, कार्यालय में लक्ष्मी जी के पूजन के रुप में उनका स्वागत किया जाता है| दीपावली के दिन व्यापारी वर्ग अपनी दुकान या प्रतिष्ठान पर दिन के समय लक्ष्मी का पूजन करता है वहां गृहस्थ लोग सांय प्रदोष काल में महालक्ष्मी का आवाहन करते हैं। 

गोधूलि लग्न में पूजा आरंभ करके महानिशीथ काल तक अपने अपने अस्तीत्व के अनुसार महालक्ष्मी के पूजन को जारी रखा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि जहां गृहस्थ और वाणिज्य वर्ग के लोग धन की देवी लक्ष्मी से समृद्धि और वित्त कोष की कामना करते हैं, वहां साधु-सन्त और तांत्रिक लोग कुछ विशेष सिद्धियां अर्जित करने के लिए रात्रिकाल में अपने तांत्रिक षट कर्म करते हैं।

लक्ष्मी पूजनकर्ता दीपावली के दिन जिन पण्डितजी से लक्ष्मी का पूजन करायें, हो सके तो उन्हें सारी रात अपने यहां रखें और उनसे श्री सूक्त, लक्ष्मी सहस्रनाम आदि का पाठ और हवन करावें। पश्चात् पण्डित जी को श्रद्धा-भक्ति पूर्वक दक्षिणा दें।


पूजन की सामग्री  

महालक्ष्मी पूजन में लक्ष्मी व श्री गणेश की मूर्तियां या चित्र  (बैठी हुई मुद्रा में),केशर, रोली, चावल, पान का पत्ता, सुपारी, फल, फूल, दूध, खील, बतासे, सिन्दूर,शहद, सिक्के, लौंग, सूखे मेवे, मिठाई, दही गंगाजल धूप अगरबत्ती दीपक रूई तथा कलावा, नारियल और कलश के लिये एक ताम्बे का पात्र चाहिये।



कैसे करें तैयारी

एक थाल में या भूमि को शुद्ध करके नवग्रह बनायें अथवा नवग्रह का यंत्र स्थापित करें। इसके साथ ही एक ताम्बे का कलश बनायें, जिसमें गंगा जल, दूध, दही, शहद, सुपारी, सिक्के और लौंग आदि डालकर उसे लाल कपड़े से ढक कर एक कच्चा नारियल कलावे से बांध कर रख दें। जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया है, वहां पर रुपया सोना या चांदी का सिक्का लक्ष्मी जी की मूर्ति अथवा मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी गणेश सरस्वती जी अथवा ब्रहमा विष्णु महेश आदि देवी देवताओं की मूर्तियां अथवा चित्र सजायें। कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रूप मानकर दूध, दही और गंगा जल से स्नान कराकर अक्षत चंदन का श्रृंगार करके फल-फूल आदि से सज्जित करें। इसके ही दाहिने ओर एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें, जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है।

लक्ष्मी पूजन की विधि 

घर के वरिष्ठ सदस्य या जो नित्य ही पूजा पाठ करते हैं, उन्हें महालक्ष्मी पूजन के समय तक व्रत रखना चाहिए। घर के सभी सदस्यों को महालक्ष्मी पूजन के समय घर से बाहर नहीं जाना चाहिए। सभी सदस्य प्रसन्न मुद्रा में घर में सजावट और आतिशबाजी का आयोजन करें। आज के व्यापारिक युग में आतिश बाजी और बम और पटाखे खतरे से खाली नहीं हैं। अतः छोटे बच्चों के साथ इनका प्रयोग करते वक्त सावधानी बरतें। ऐसे मौके पर कभी कभी दुर्घटना और गमगीन वातावरण होने का डर रहता है। 
                       
लक्ष्मी पूजनकर्ता स्नान आदि नित्यकर्म से निवृत होकर पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम करके स्वस्ति वाचन करें। अनन्तर गणेशजी का स्मरण कर अपने दाहिने हाथ में गन्ध, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, द्रव्य और जल आदि लेकर दीपावली महोत्सव के निमित्त गणेश, अम्बिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, कुबेर आदि देवी-देवताओं के पूजनार्थ संकल्प करें । पश्चात सर्वप्रथम गणेश और अम्बिका का पूजन करें। अनन्तर कलश स्थापन, षोडशमातृका पूजन और नवग्रह पूजन करके महालक्ष्मी आदि देवी-देवताओं का पूजन करें।


लक्ष्मी पूजा की विधि और पाठ मंत्र    

गणेश पूजन, दीप पूजन और गौ द्रव्य पूजन इस पर्व की विशेषताएं हैं। इनसे तात्पर्य यह है कि धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी, अर्थात अर्थ की सदबुद्धि, ज्ञान प्रकाश और परमार्थिक कार्यों से विरोध नहीं होना चाहिए, वरन अर्थ का उपयोग इनके लिए हो और अर्थोपार्जन भी इन्हीं से प्रेरित हो।

लक्ष्मी पूजन प्रारंभ करने से पूर्व पूजा वेदी पर लक्ष्मी-गणेश के चित्र, या मूर्ति, वही-खाते, कलम दवात आदि भली प्रकार सजा कर रख देने चाहिएं तथा आवश्यक पूजा की सामग्री तैयार कर लेनी चाहिए।

लक्ष्मी पूजन प्रारंभ

ऊँ श्री गणेशाय नम:

तीर्थों का आवाहन
पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्याः सरितस्तथा। आगच्छन्तु पवित्राणि पूजा काले सदा मम।। 
गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरू।।
कुरूक्षेत्र-गया-गंगा-प्रभास-पुष्कराणि च। एतानि पुण्यतीर्थानि पूजा काले भवन्त्विह।।
त्वं राजा सर्वतीर्थानां त्वमेव जगतः पिता। याचितं देहि में तीर्थ तीर्थराज। नमोऽस्तु ते।।

पवित्रीकरण
बायें हाथ में जल ले कर उसे दाहिने हाथ से ढक लें। मंत्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें। पवित्रता की भावना रखें।
ओम् अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाहयाभ्यन्तरः शुचिः।।

आचमन
तीन बार वाणी, मन और अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाएं।
ओम् केशवाय नमः।।1।। 
ओम् नारायणाय नमः।।2।।
ओम् माधवाय नमः।।3।। 
ओम् गोविंदाय नमः।।4।।
(यह कहकर हाथ धोये)

प्राणायाम
श्वास को धीमी गति से भीतर गहरा खंच कर थोड़ा रोकना और धीरे-धीरे बाहर निकालना प्राणायाम कृत्य में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति और रेष्ठता सांस के द्वारा अंदर खींची जा रही है। छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण-दुष्पृत्तियां बुरे विचार प्रश्वास के साथ ही बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए।

ओम् भूः ओम् भुवः ओम् स्वः ओम् महः ओम् जनः ओम् तपः ओम् सत्यम्
ओम् तःत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।
ओम् आपो ज्योति रसोऽमृतं ब्रहम भूर्भवः स्वरोम्।

न्यास 
इसका प्रयोजन शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश करने तथा अंतः की चेतना को जगाने के लिए है, ताकि देव पूजन जेसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बायें हाथ की हथेली में जल ले कर दाहिने हाथ की पांचों उंगलियों को उनमें भिगो कर बताये गये स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।



ओम् वाङ्मेऽआस्येऽस्तु ।                                                    (मुख को)
ओम् नासोर्मेप्राणोऽस्तु ।                                           (नासिका के दोनों छिद्रो को)
ओम् अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु  ।                                                 (दोनों नेत्रों को)
ओम् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।                                               (दोनों कानों को)
ओम् बाह्वोर्मे बलमस्तु ।                                                  (दोनों बाहों को)
ओम् ऊर्वोर्मेओजोऽस्तु ।                                                  (दोनों जंघाओं को)
ओम् अरिष्टानिमेऽङगानि तनुस्तन्वा में सह सन्तु ।        (समस्त शरीर को)




आसन शुद्धि
आसन शुद्धि की भावना के साथ धरती माता का स्पर्श करें।

ओम् पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरू चासनम्।।

चंदन धारण 
मस्तिष्क के विचारों को शांत, शीतल एवं सुगंधित, पवित्र और निष्पाप बनाने के लिए चंदन मस्तिष्क पर लगाएं।

चन्दनस्य महत्पुण्यं पवित्रं पाप नाशनम्।
आपदां हरते नित्यं लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा।।

रक्षा सूत्रम्
अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के पुण्य कार्य के लिए व्रतशीलता धारण करूंगा, यह भाव रखें। पुरूषों तथा अविवाहित लड़कियों के दाहिने हाथ में और महिलाओं के बायें हाथ में कलावा बांधा जाता है। 

ओम् व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोवि दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।
                             (ब्राहमण को कलावा बांधें)
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
                                  (ब्राहमण से कलावा बंधवाएं)

तिलक
ओम् स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बध्स्थतिर्दधातु।।

रक्षा विधान
यज्ञादि शुभ कार्यो में आसुरी शक्तियां विघ्न उत्पन्न करती हैं। इनसे रक्षा के लिए रक्षा विधान प्रयोग किया जाता है। सभी लोग भावना करें कि दसों दिशाओं में भगवान की शक्तियां इस शुभ आयोजन और इसमें सम्मिलित लोगों का संरक्षण करेंगी।

बायें हाथ पर पीली सरसों अथवा अक्षत रखें और दायें हाथ से ढक लें और दायें घुटने पर रखें। निम्न मंत्र बोलें -

ओम् अपसर्पनतु ते भूता ये भूता भूतले स्थिताः। ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्य शिवाज्ञया।।
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतोदिशम्। सर्वेषामविरोधेन पूजा कर्मसमारभे।।
दशों दिशाओं में मंत्रोच्चार के साथ उसे फेंके।

संकल्प
उसके बाद जल-अक्षत लेकर पूजन का संकल्प करें- संकल्प मंत्र को बोलते हुए संकल्प कीजिए कि विक्रम संवत के कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान व समय पर सपरिवार लोक कल्याण, आत्म कल्याण, उज्जवल भविष्य तथा कामना पूर्ती, दीर्घायु एवं आरोग्य जीवन पुत्र-पौत्र, धन-धन्य आदि समृद्धि के लिए महालक्ष्मी को प्रसन्न करने हेतु लक्ष्मी पूजन का संकल्प लेता हूँ जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हो।



ओम् विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतों महापुरूषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य
         ब्रहमणोऽहि द्वितीयपरार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे
   वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके, दक्षिणायने मासानां मासोत्तमेमासे
     कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे अमावस्यां तिथौ भृगुवासरे
  ------गोत्रोत्पन्नः-------नामाः अहं सपरिवारस्य
  लोककल्याणाय आत्मकल्याणाय, भविष्योज्जवलकामनापूर्तये
        श्रुति-स्मृति-पुराणोक्तफल प्राप्तयर्थ
    दीर्घायुआरोग्य-पुत्र-पोैत्र-धन-धान्यादिसमृद्ध्यर्थे
      श्रीमहालक्ष्मीदेव्याः प्रसन्नार्थ लक्ष्मीपूजनंकरिष्ये ।



ऐसा  मन्त्र पढ़कर  संकल्प का जल छोड़ दें। 

मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा
पूजन से पूर्व नई प्रतिमा की निम्न रीति से प्राण-प्रतिष्ठा करें | बाएं हाथ में चावल लेकर निम्नलिखित मंत्रों को पढ़ते हुए दाहिने हाथ से उन चावलों को प्रतिमा पर छोड़ते जाएं-

ऊँ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ समिमं दधातु। 
विश्वे देवास इह मादयन्तामोम्प्रतिष्ठ।।
ऊँ अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणा: क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन।।

गणेश जी का आवाहन
ओम् गणानां त्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्।।
हे हरेम्ब! त्वमेहयेम्बिका त्रयम्बकात्मज सिद्धिबुद्धिपते त्रयलक्ष लाभ्प्रभो पितः।। नागास्य नागरहारत्वं, गणराज चतुर्भुज। षितैः स्वायुधैर्दन्त पाशांकुशपरश्वधैः आवाहयामि पूजार्थ रक्षार्थ 
व ममक्रतोः। इहागत्य गृहागत्य गृहाणत्वं पूजां यागंच च रक्षमे।।
ओम् अनौप्सितार्थसिद्धयार्थ पूजितो यः सुरासुरैः। सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः।।
ओम् री गणेशाय नमः ध्यायामि आवाहयामि, स्थापयामि। गंधाक्षतं पत्रपुष्पाणि समर्पयामि।।



देहलीविनायक पूज
न 


दीपावली पर देवी महालक्ष्मी तथा भगवान श्रीगणेश के साथ ही देहलीविनायक (श्रीगणेश) की पूजा करने का विधान भी है। इसकी विधि  है- दुकान ये ऑफिस में दीवारों पर ऊँ श्रीगणेशाय नम:, स्वस्तिक चिह्न, शुभ-लाभ आदि मांगलिक एवं कल्याणकार शब्द सिन्दूर से लिखे जाते हैं। इन्हीं शब्दों पर 
ऊँ देहलीविनायकाय नम: 
इस नाममंत्र द्वारा गंध-पुष्पादि से पूजन करें।

कलश पूजन 
शांति शीतलता श्रद्धा का मंगलमय प्रतीक यह कलश सभी देवताओं के निवास के लिए सबसे उपयुक्त उपकरण है। स्थापित देव कलश में समस्त देवताओं का आहवान किया जाता है। भावना करें कि जिन देवताओं को आहवान किया जा रहौ वे इस कलश में आ कर निवास करेंगे। मंत्रोच्चार के साथ कलश में अक्षत-पुष्प डालें।

ओम् कलशस्य मुखे विष्णुःकण्ठे रूद्रः समाश्रितः। 
मूले त्वस्य स्थितों ब्रहमा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।

कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा। 
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद सामवेदो हय्थर्वणः।।

अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशात समाश्रिताः। 
अत्र गायत्री सावित्री शान्तिः पुष्टिकरी तथा।।

     प्रार्थना 
देवदानवसंवादे मथ्यमाने महोदधौ। 
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम्।।

त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः। 
त्वयि तिष्ठनित भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।।

शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः। 
आदित्या सववो रूदा्र विश्वेदेवाः सपैतृकाः।।

त्वयि तिष्ठनित सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः। 
त्वत्प्रसादादिम यज्ञं कर्तुमीहे जलोद्भव।।

सांनिध्यं कुरू में देव प्रसन्नो भव सर्वदा। 
ओम् भूर्भुवः स्वः कलशस्थ देवताभ्यो नमः।।

गंधं, अक्षतं, पत्रं, पुष्पं समर्पयामि।

दीपमालिका (दीपक) पूजन 
दीपक ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है। हृदय में भरे हुए अज्ञान और संसार में फेले हुए अंधकार का शमन करने वाला दीपक देवताओं की ज्योतिर्मय शक्ति का प्रतिनिधि है। इसे भगवान का तेजस्वी रूप मान कर पूजा जाना चाहिए। भावना करें कि सबके अंतःकरण में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो रहा है। बीच में एक बड़ा घृत दीपक और उसके चारों ओर ग्यारह, इक्कीस, अथवा इससे भी अधिक दीपक, को प्रज्वलित कर महालक्ष्मी के समीप रखकर उस दीपज्योति का ऊँ दीपावल्यै नम: इस नाममंत्र से गंधादि उपचारों द्वारा पूजन कर अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार तिल के तेल से प्रज्वलित करके एक परात में रख कर आगे लिखे मंत्र से ध्यान करें। 

ध्यान 

त्वं ज्योतिस्त्वं रविश्चनद्रो विद्युदग्निश्च तारका:।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपावल्यै नमो नम:।।

भो दीप ब्रहमरूपस्त्वं अन्धकारविनाशक। 
इमां मया कृतां पूजां गृहणन्तेजः प्रवर्धय।।
गंध, अक्षत, पत्र और पुष्प चढ़ाने के पश्चात हाथ जोडकर निम्न प्रार्थना करें।

प्रार्थना 
शुभं करोतु कल्याणमारोग्यं सुख सम्पदाम्। मम बुद्धि प्रकाशं च दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते।।
शुभं भवतु कल्याणमारोग्यं पुष्टिवर्धनम्। आत्मतत्वप्रबोधायदीपज्योतिर्नमोऽस्तुते।।


दीपमालिकाओं का पूजन कर संतरा, ईख, धान इत्यादि पदार्थ चढ़ाएं। धान का लावा(खील) गणेश, महालक्ष्मी तथा अन्य सभी देवी-देवताओं को भी अर्पित करें। अंत में अन्य सभी दीपकों को भी जला लें।

षोडशमातृका पूजन 
ओम् गौरी पंच  शचीमेधा सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोक मातरः।।
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवताः। गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धौ पूज्याश्च षोडश।।
        ओम् भूर्भुवः स्वः षोडश मातृकाभ्यो नमः इहागच्छत इह तिष्ठत।
                 (ओम् गौर्यादिषेडशमातृकाभ्यो नमः)

प्रार्थना  
ओम जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।।

माता गौरी का आवाहन
र्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते।।
ओम् श्रीगौर्यै नमः आवाहयामि, स्थापयामि। गंधाक्षत पत्रपुष्पाणि समर्पयामि।।

श्री महालक्ष्मी पूजन के मंत्र
अब  पूर्व स्थापित मूर्तिमयी श्री लक्ष्मी जी के पास किसी थाली अथवा कटोरे में केशरयुक्त चंदन से अष्ट दल कमल बना कर उव पर द्रव्य लक्ष्मी (सोना अथवा चांदी के सिक्के, विविध सिक्के, लेकिन जिन सिक्कों पर मनुष्यों के चित्र अंकित हों उन्हें देवता समान पूजना निषेध है) स्थापित करके एक साथ ही दोनों की पूजा निम्न लिखित विधान से करें: 

ध्यान 
यासा पùसनस्था विपुलकटितटी पùपत्रायताक्षी गम्भीरावर्तनाभिस्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया।
या लक्ष्मीर्दिव्यरूपैर्मणिगणखचितैः स्नापिता हेमकुम्भैः सा नित्यं पùहस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता।।
ओम् हिरण्यवर्धा हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।
ओम् महालक्ष्म्यै नमः। ध्यानार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।
       (ध्यान कर पुष्प अर्पण करें)

स्नान
ओम् महालक्ष्म्यै नमः। स्नानं समर्पयामि।
           (स्नान के लिए जल चढ़ाएं)

दुग्ध -स्नान
ओम् पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्।।
ओम् महालक्ष्म्यै नमः। पयःस्नानं समर्पयामि। पयःस्नानान्ते शुद्धोदकस्नां समर्पयामि।
     (गौ के कच्चे दूध से स्नान कराये, पुनः शुद्ध जल से स्नान करायें।)

पंचामृत स्नान
एकत्र मिश्रित पंचामृत से एकतंत्र से निम्न मंत्र से स्नान करायें।
पयो दधि घृतं चैव मधुशर्करयान्वितम्।
पंचामृतं मयानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ओम् पंच नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः।
सरस्वती तु पंचधा सो देशेऽीावत् सरित्।।
ओम महालक्ष्म्यै नमः । पंचामृतस्नानं समर्पयामि, पंचामृतस्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।
       (पंचामृत स्नान के अनन्तर शुद्ध जल से स्नाना करायें।)

अंग पूजा

रोली, कुंकुम मिश्रित अक्षत-पुष्पों से निम्नांकित एक-एक नाम-मंत्र बढ़ते हुए अंग पूजा करें।

ओम् चपलायै नमः, पादौ पूजयामि।
ओम् चंचलायै नमः, जानुनी पूजयामि।
ओम् कमलायै नमः, कटिं पूजयामि।
ओम् कात्यायन्यै नमः, नाभिं पूजयामि।
ओम् जगन्मात्रे नमः, जठरं पूजयामि।
ओम् विश्ववल्लभायै नमः, वक्षःस्ािलं पूजयामि।
ओम् कमलवासिन्यै नमः, हस्तौ पूजयामि।
ओम् पùाननायै नमः, मुखं पूजयामि।
ओम् कमलपत्राक्ष्यै नमः, नेत्रत्रयं पूजयामि।
ओम् श्रियै नमः, शिरः पूजयामि।
ओम् महालक्ष्म्यै नमः, सर्वांग पूजयामि।

कर्पूर आरती 
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पंचदशर्च च श्रीकामः सततं जपेत्।।

प्रदक्षिणा 
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणा पदे पदे।।
                         (मानसिक परिक्रमा करें)

श्री महाकाली (दवात) पूजन


स्याहीयुक्त दवात को भगवती महालक्ष्मी के सामने फूल तथा चावल के ऊपर रखकर उस पर सिंदूर से स्वस्तिक बना दें तथा मौली लपेट दें।
ऊँ श्रीमहाकाल्यै नम: 
इस नाममंत्र से गंध-पुष्पादि पंचोपचारों से या षोडशोपचारों से दवात तथा भगवती महाकाली का पूजन करें और अंत में इस प्रकार प्रार्थनापूर्वक उन्हें प्रणाम करें-

कालिके! त्वं जगन्मातर्मसिरूपेण वर्तसे।
उत्पन्ना त्वं च लोकानां व्यवहारप्रसिद्धये।

या कालिका रोगहरा सुवन्द्याभक्तै: समस्तैव्र्यवहारदक्षै:।
जनैर्जनानां भयहारिणी च सा लोकमाता मम सौख्यदास्तु।।
               



लेखनी पूजन


लेखनी (कलम) पर मौली बांधकर सामने रख लें और इस नाम मंत्र द्वारा गंध, पुष्प, चावल आदि से पूजन कर-
लेखनी निर्मिता पूर्वं ब्रह्मणा परमेष्ठिना।
लोकानां च हितार्थय तस्मात्तां पूज्याम्यहम्।।

ओम् लेखन्यै नमः। 
ऊँ लेखनीस्थायै देव्यै नम:||

गंधाक्षत पत्रपुष्पाणि समर्पयामि। नमस्करोमि।
   (चंदन पुष्पाक्षत अर्पण कर नमस्कार करें।)

प्रार्थना 
शास्त्राणां व्यवहाराणां विद्यानामाप्युयाद्यात:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि मम हस्ते स्थिरा भव।।


सरस्वती (बही-खाता) पूजन


बही खातों का पूजन करने के लिए पूजा मुहुर्त समय अवधि में नवीन बहियों व खाता पुस्तकों पर केसर युक्त चंदन से अथवा लाल कुमकुम से स्वास्तिक का चिन्ह बनाना चाहिए. इसके बाद इनके ऊपर "श्री गणेशाय नम:" लिखना चाहिए. इसके साथ ही एक नई थैली लेकर उसमें हल्दी की पांच गांठे, कमलगट्ठा, अक्षत, दुर्गा, धनिया व दक्षिणा रखकर, थैली में भी स्वास्तिक का चिन्ह लगाकर सरस्वती मां का स्मरण करना चाहिए.


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदण्डण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।,
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभि र्देवै: सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।


ध्यान
शुक्लां ब्रह्यविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनी वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते सुटिकमालिकां विदधतीरं पद्मासने संस्थितं वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।
ओम् सरस्वत्यै नमः, सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि, नमस्करोमि।





अर्थात :- जो अपने कर कमलों में घटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती है, चन्द्र के समान जिनकी मनोहर कांति है. जो शुंभ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है. वाणी बीज जिनका स्वरुप है, तथा जो सच्चिदानन्दमय विग्रह से संपन्न हैं, उन भगवती महासरस्वती का मैं ध्यान करता हूं. ध्यान करने के बाद मां सरस्वती का  तथा  ही खातों का गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्ध से पूजन करना चाहीए व इसके साथ ही निम्न मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए

ऊँ वीणापुस्तकधारिण्यै श्रीसरस्वत्यै नम:


अर्थात :- " ऊँ वीणा पुस्तक धारिणी सरस्वती" आपको नमस्कार हैं.


तुला (तराजू) पूजन

 सिंदूर से तराजू पर स्वस्तिक बना लें। मौली लपेटकर तुला देवता का इस प्रकार ध्यान करें-
ध्यान
नमस्ते सर्वदेवानां शक्तित्वे सत्यमाश्रिता।
साक्षीभूता जगद्धात्री निर्मिता विश्वयोनिना।।
मंत्र 
 ऊँ तुलाधिष्ठातृदेवतायै नम:
 इस नाम मंत्र से गंध, चावल आदि उपचारों द्वारा पूजन कर नमस्कार करें

कुबेर पूजन 

कुबेर पूजन करने के लिये प्रदोष काल व निशिथ काल को लिया जा सकता है. ऊपर दिये गये शुभ समय में कुबेर पूजन करना लाभकारी रहेंगा.कुबेर पूजन करने के लिये सबसे पहले तिजोरी अथवा धन रखने के संदुक पर स्वास्तिक का चिन्ह बनायें, और कुबेर का आह्वान करें. आह्वान के लिये निम्न मंत्र बोलें.

आवाहयामि देव त्वामिहायाहि कृपां कुरु।
कोशं वद्र्धय नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर।।

आह्वान करने के बाद ऊँ कुबेराय नम: इस मंत्र को 108 बार बोलते हुए धन संदूक कि गंध, पुष्प आदि से पूजन करना चाहिए. साथ ही निम्न मंत्र बोलते हुए कुबेर देव से प्रार्थना करें.


धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च।
भगवान् त्वत्प्रसादेन धनधान्यादिसम्पद:।।

इस प्रकार प्रार्थनाकर पूर्व पूजित हल्दी, धनिया, कमलगट्टा, द्रव्य, दूर्वादि से युक्त थैली तिजोरी मे रखें

नवग्रह पूजा 

हाथ में चावल और फूल लेकर नवग्रह का ध्यान करें और निम्न मन्त्र दोहराएँ :-

ओम् ब्रहमा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशि भूमिसुतो बुधश्च।
गुरूश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः सर्वे ग्रहाः शन्तिकरा भवन्तु।।
नवग्रह देवताभ्यो नमः आहवयामी स्थापयामि नमः।

आरती



दीपावली पर देवी महालक्ष्मी, भगवान श्रीगणेश, देहली विनायक, दवात, लेखनी, बही, कुबेर, तुला व दीपमाला पूजन के पश्चात महालक्ष्मी की आरती की जाती है।

आरती के लिए एक थाली में स्वस्तिक आदि मांगलिक चिह्न बनाकर चावल तथा पुष्पों के आसन पर शुद्ध घी का दीपक जलाएं। एक पृथक पात्र में कर्पूर भी प्रज्वलित कर वह पात्र भी थाली में यथास्थान रख लें, आरती- थाल के जल से स्वयं की शुद्धि करें (छिड़क लें)। पुन: आसन पर खड़े होकर अन्य पारिवारिक जनों के साथ घण्टानादपूर्वक निम्न आरती गाते हुए -कर्पूर, या घृत के दीपक से श्री महालक्ष्मी जी मंगल आरती करें
ध्यान
महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं सुरेश्र्वरी |
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं दयानिधे ॥
आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता मैया जय लक्ष्मी माता | 
तुमको निसदिन सेवत, हर विष्णु विधाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता....
उमा ,रमा,ब्रम्हाणी, तुम जग की माता | 
सूर्य चद्रंमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता ॥
.ॐ जय लक्ष्मी माता....
दुर्गारुप निरंजन, सुख संपत्ति दाता | 
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि सिद्धी धन पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता....
तुम ही पाताल निवासनी, तुम ही शुभदाता | 
कर्मप्रभाव प्रकाशनी, भवनिधि की त्राता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता.... 
जिस घर तुम रहती हो , ताँहि में हैं सद् गुण आता|
सब सभंव हो जाता, मन नहीं घबराता॥
ॐ जय लक्ष्मी माता.... 
तुम बिन यज्ञ ना होता, वस्त्र न कोई पाता |
खान पान का वैभव, सब तुमसे आता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता.... 
शुभ गुण मंदिर सुंदर क्षीरनिधि जाता| 
रत्न चतुर्दश तुम बिन ,कोई नहीं पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता....
महालक्ष्मी जी की आरती ,जो कोई नर गाता | 
उँर आंनद समाा,पाप उतर जाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता....
स्थिर चर जगत बचावै ,कर्म प्रेर ल्याता | 
रामप्रताप मैया जी की शुभ दृष्टि पाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता.... 
ॐ जय लक्ष्मी माता मैया जय लक्ष्मी माता | 
तुमको निसदिन सेवत, हर विष्णु विधाता ॥
ॐ जय लक्ष्मी माता...


पुष्पांजलि

ओम् या श्रीः स्वयं सुकृतिनां वनेष्वलक्ष्मीः, पापात्मनां कृतधियां हृदययेषु बुद्धिः।।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा, तां त्वां नताः स्मः परिपालय देवि विश्वम्।
ओम् महालक्ष्म्यै नमः, मन्त्रपुष्पान्जलिं समर्पयामि नमः।।

क्षमा प्रार्थना


अंत में क्षमा प्रार्थना कर पूजन को पूर्ण करें | इस प्रार्थना द्वारा अपने अपराधों या पूजन की त्रुटियों के लिए माँ से क्षमा मांग कर इस पूजन को पूर्ण करने की प्रार्थना करें |



ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।

दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।।


आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।।



मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।।



अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।।



सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।।



अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रोन्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।।



कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।।



गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।।


महालक्ष्म्यै च विद्महे  विष्णुपत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।