उत्पन्ना एकाद्शी

उत्पन्ना एकाद्शी

उत्पन्ना एकादशी का व्रत मार्गशीर्ष मास के कृ्ष्ण पक्ष में किया जाता है. इस दिन भगवान श्री कृ्ष्ण की पूजा करने का विधान है. व्रत वाले को दशमी के दिन रात में भोजन नहीं करना चाहिए. एकादशी के दिन ब्रह्रा बेला में भगवान का पुष्प, धूप, दीप, अक्षत से पूजन करके पूजन करना चाहिए. इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता है. इस व्रत को करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है.

उत्पन्ना एकादशी व्रत विधि

उत्पन्ना एकादशी का व्रत जो जन करता है, वही सभी सुखों को भोगकर अंत में श्री विष्णु जी की शरण में चला जाता है. इस एकादशी को करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले दशमी तिथि की सायं में दातुन नहीं करनी चाहिए. और रात को दो बार भोजन नहीं करना चाहिए. एकादशी की सुबह संकल्प नियम के अनुसार कार्य करना चाहिए. दोपहर को संकल्प पूर्वक स्नान करना चाहिए. स्नान करने से पहले शरीर पर मिट्टी का लेप करना चाहिए. चंदन और लेप लगाते समय निम्न मंत्र का जाप करना चाहिए.

अश्व क्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे
उवृ्तापि बराहेण कृ्ष्णे न सताबाहुना ।
मृ्तिके हरमें पाप तन्मया पूर्वक संचितम 
त्वयाहतेन पापेन गच्छामि परमागतिम ।।

स्नान करने के बाद धूप, दीप, नैवेद्ध से भगवान का पूजन करना चाहिए. रात को दीपदान करना चाहिए. ये सतकर्म भक्ति पूर्वक करने चाहिए. उस रात को नींद का त्याग करना चाहिए. एकादशी को दिन और रात्रि में भजन सत्संग आदि शुभ कर्म करने चाहिए. उस दिन श्रद्वापूर्वक ब्राह्माणों को दक्षिणा देनी चाहिए. और उनसे अपनी गलतियों की क्षमा मांगनी चाहिए. और अगर संभव हों, तो इस मास के दोनों पक्षों की एकादशी के व्रतों को करना चाहिए.

उत्पन्ना एकादशी व्रत फल 

इस विधि के अनुसार जो व्यक्ति व्रत करता है, उनको तीर्थ और दर्शन करने से जो पुन्य़ मिलता है. वह एकादशी व्रत के पुन्य के सोलहवें, भाग के बराबर भी नही़ है. इसके अतिरिक्त  व्यतीपात योग, संक्रान्ति में तथा चन्द्र-सूर्य ग्रहण में दान देने से और कुरुक्षेत्र में स्नान करने से जो पुन्य मिलता है. वही पुन्य मनुष्य को एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है. दश श्रेष्ठ ब्राह्माणों को भोजन कराने से जो पुन्य मिलता है. वह पुन्य एकादशी के पुन्य के दशवें भाग के बराबर होता है.
  
निर्जल व्रत करने का आधा फल एक बार भोजन करने के बराबर होता है. एकादशी का व्रत करने से ही यज्ञ, दान, तप आदि मिलते है. अन्यथा नही, अत: एकादशी को अवश्य ही करना चाहिए. इस व्रत में शंख से जल नहीं पीना चाहिए. एकादही व्रत का फल हजार यज्ञों से भी अधिक है. 

उत्पन्ना एकाद्शी व्रत कथा 

सतयुग में एक महा भयंकर दैत्य हुआ था. उसका नाम मुर था. उस दैत्य ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें, उनके स्थान से गिरा दिया. तब देवेन्द्र ने महादेव जी से प्रार्थना की " हे शिव-शंकर, हम सब देवता मुर दैत्य के अत्याचारों से दु:खित हो, मृ्त्युलोक में अपना जीवन व्यतीत कर रहे है.
  
आप कृपा कर इस विपति से बाहर आने का उपाय बतलाईये़. शंकरजी बोले इसके लिये आप श्री विष्णु जी की शरण में जाईये.  इन्द्र तथा अन्य देवता महादेवजी के बचनों को सुनकर क्षीर सागर गये. जहां पर भगवान श्री विष्णु शेषशय्या पर शयन कर रहे थे़ भगनान को शयन करते देखकर, देवताओं सहित सभी ने श्री विष्णु जी दैत्य के अत्याचारों से मुक्त होने के लिये विनती की.

श्री विष्णु जी ने बोला की यह कौन सा दैत्य है, जिसने देवताओं को भी जीत लिया है. यह सुनके दैत्य के विषय में देवराज इन्द्र बताने लगे, उस दैत्य की ब्रह्मा वंश में उत्पत्ति हुई थी, उसी दैत्य के पुत्र का नाम मुर है. उसकी राजधानी चन्द्रावती है. उस चन्द्रावती नगरी में वह मुर नामक दैत्य निवास करता है. जिसने अपने बल से समस्त विश्व को जीत लिया है. और सभी देवताओं पर उसने राज कर लिया. इस दैत्य ने अपने कुल के इन्द्र, अग्नि, यम, वरूण, चन्द्रमा, सूर्य आदि लोकपाल बनाये है. वह स्वयं सूर्य बनकर सभी को तपा रहा है.  और स्वयं ही मेघ बनकर जल की वर्षा कर रहा है. अत: आप उस दैत्य से हमारी रक्षा करें.

इन्द्र देव के ऎसे वचन सुनकर भगवान श्री विष्णु बोले -देवताओं मै तुम्हारे शत्रुओं का शीघ्र ही संकार करूंगा. अब आप सभी चन्द्रावती नगरी को चलिए. इस प्रकार भगवान विष्णु देवताओं के साथ चल रहा था. उस समय दैत्यपति मुर अनेकों दैत्यों के साथ युद्ध भूमि में  गरज रहा था. दैत्य ने देवताओं को देखा तो उसने देवताओं से भी युद्ध प्रारम्भ कर दिया.

जब दैत्यों ने भगवान श्री विष्णु जी को युद्ध भूमि में देखा तो उन पर अस्त्रों-शस्त्रों का प्रहार करने लगे. भगवान श्री विष्णु मुर को मारने के लिये जिन-जिन शास्त्रों का प्रयोग करते वे सभी उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगे़ भगवान श्री विष्णु उस दैत्य के साथ सहस्त्र वर्षों तक युद्ध करते रहे़ परन्तु उस दैत्य को न जीत सके. 

अंत में विष्णु जी शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बद्रियाकाश्रम में एक लम्बी गुफा में वे शयन करने के लिये चले गये. दैत्य भी उस गुफा में चला गया, कि आज मैं श्री विष्णु को मार कर अपने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लूंगा. उस समय गुफा में एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई़ और
दैत्य के सामने आकर युद्ध करने लगी. दोनों में देर तक युद्ध हुआ. उस कन्या ने उसको धक्का मारकर मूर्छित कर दिया. 

और उठने पर उस दैत्य का सिर काट दिया. वह दैत्य सिर कटने पर मृ्त्यु को प्राप्त हुआ. उसी समय श्री विष्णु जी की निद्रा टूटी तो उस दैत्य को किसने मारा वे ऎसा विचार करने लगे. यह दैत्य आपको मारने के लिये तैयार था. तब मैने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इसका वध किया है. भगवान श्री विष्णु ने उस कन्या का नाम एकादशी रखा क्योकि वह एकादशी के दिन श्री विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुई थी.