श्री जगन्नाथ रथ यात्रा ( २९ जून २०१४ विशेष )



श्री जगन्नाथ रथ यात्रा ( २९ जून २०१४ विशेष )

जगन्नाथ (संस्कृत: जगन्नाथ jagannātha उड़िया: ଜଗନ୍ନାଥ) हिन्दू भगवान विष्णु के पूर्ण कला अवतार श्रीकृष्ण का ही एक रूप हैं। इनका एक बहुत बड़ा मन्दिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर में स्थित है। इस शहर का नाम जगन्नाथ पुरी से निकल कर पुरी बना है। यहाँ वार्षिक रुप से रथ यात्रा उत्सव भी आयोजित किया जाता है। पुरी की गिनती हिन्दू धर्म के चार धाम में होती है।




सम्प्रदाय
जगन्नाथ संप्रदाय कितना पुराना है तथा यह कब उत्पन्न हुआ था इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नही कहा जा सकता। वैदिक साहित्य और पौराणिक कथाओं में भगवान जगन्नथ या पुरूषोत्तम का विष्णु के अवतार के रूप में उनकी महिमा का गुणगान किया गया है। अन्य अनुसंधान स्रोतों से इस बात के पर्याप्त सबूत है कि यह संप्रदाय वैदिक काल से भी पुराना है। इन स्रोतों के अनुसार भगवान जगन्नाथ शबर जनजातीय समुदाय से संबधित है और वे लोग इनकी पूजा गोपनीय रूप से करते थे। बाद में उनको पुरी लाया गया। वे सारे ब्रह्मांड के देव है तथा वे सबसे संबधित है। अनेक संप्रदायों जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त, गणपति, बौध्द तथा जैन ने अपने धार्मिक सिंध्दातों में समानता पाई है। जगन्नाथ जी के भक्तों में सालबेग भी है जो जन्म से मुस्लिम था। भगवान जगन्नथ और उनके मंदिर ने अनेक संप्रदायों तथा धार्मिक समुदायों के धर्म गुरूओं का पुरी आकर्षित किया है। आदि शंकराचार्य ने इसे गोवर्धन पीठ स्थापित करने के लिए चुना। उन्होंने जगन्नाथाष्टक का भी संकलन किया। अन्य धार्मिक संत या धर्म गुरू जो यहां आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की उनमें माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, सांयणाचार्य, रामानुज, रामानंद, तुलसीदास, नानक, कबीर, तथा चैतन्य हैं और स्थानीय संत जैसे जगन्नाथ दास, बलराम दास, अच्युतानंद, यशवंत, शिशु अनंत और जयदेव भी यहां आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की। पुरी में इन संतों द्वारा मठ या आश्रम स्थापित किये गये जो अभी भी मौजूद हैं तथा किसी न किसी रूप में जगन्नाथ मंदिर से संबधित हैं।

कथा

जगन्नाथ से जुड़ी दो दिलचस्प कहानियाँ हैं। पहली कहानी में श्रीकृष्ण अपने परम भक्त राज इन्द्रद्युम्न के सपने में आये और उन्हे आदेश दिया कि पुरी के दरिया किनारे पर पडे एक पेड़ के तने में से वे श्री कृष्ण का विग्रह बनायें। राज ने इस कार्य के लिये काबिल बढ़ई की तलाश शुरु की। कुछ दिनो बाद एक रहस्यमय बूढा ब्राह्मण आया और उसने कहा कि प्रभु का विग्रह बनाने की जिम्मेदारी वो लेना चाहता है। लेकिन उसकी एक शर्त थी - कि वो विग्रह बन्द कमरे में बनायेगा और उसका काम खत्म होने तक कोई भी कमरे का दरवाजा नहीं खोलेगा, नहीं तो वो काम अधूरा छोड़ कर चला जायेगा। ६-७ दिन बाद काम करने की आवाज़ आनी बन्द हो गयी तो राजा से रहा न गया और ये सोचते हुए कि ब्राह्मण को कुछ हो गया होगा, उसने दरवाजा खोल दिया। पर अन्दर तो सिर्फ़ भगवान का अधूरा विग्रह ही मिला और बूढा ब्राह्मण गायब हो चुका था। तब राजा को एहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि देवों का वास्तुकार विश्वकर्मा था। राजा को आघात हो गया क्योंकि विग्रह के हाथ और पैर नहीं थे, और वह पछतावा करने लगा कि उसने दरवाजा क्यों खोला। पर तभी वहाँ पर ब्राह्मण के रूप में नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से कहा कि भगवान इसी स्वरूप में अवतरित होना चाहते थे और दरवाजा खोलने का विचार स्वयं श्री कृष्ण ने राजा के दिमाग में डाला था। इसलिये उसे आघात महसूस करने का कोइ कारण नहीं है और वह निश्चिन्त हो जाये क्योंकि सब श्री कृष्ण की इच्छा ही है।

दूसरी कहानी महाभारत में से है और बताती है कि जगन्नाथ के रूप का रहस्य क्या है । माता यशोदा, सुभद्रा और देवकी जी, वृन्दावन से द्वारका आये हुए थे। रानियों ने उनसे निवेदन किया कि वे उन्हे श्री कृष्ण की बाल लीलाओ के बारे में बतायें। सुभद्रा जी दरवाजे पर पहरा दे रही थी, कि अगर कृष्ण और बलराम आ जायेंगे तो वो सबको आगाह कर देगी। लेकिन वो भी कृष्ण की बाल लीलाओ को सुनने में इतनी मग्न हो गयी, कि उन्हे कृष्ण बलराम के आने का खयाल ही नहीं रहा। दोनो भाइयो ने जो सुना, उस से उन्हे इतना आनन्द मिला की उनके बाल सीधे खडे हो गये, उनकी आँखें बड़ी हो गयी, उनके होठों पर बहुत बड़ा स्मित छा गया और उनके शरीर भक्ति के प्रेमभाव वाले वातावरण में पिघलने लगे। सुभद्रा बहुत ज्यादा भाव विभोर हो गयी थी इस लिये उनका शरीर सबसे जयदा पिघल गया (और इसी लिये उनका कद जगन्नाथ के मन्दिर में सबसे छोटा है)। तभी वहाँ नारद मुनि पधारे और उनके आने से सब लोग वापस होश में आये। श्री कृष्ण का ये रूप देख कर नारद बोले कि "हे प्रभु, आप कितने सुन्दर लग रहे हो। आप इस रूप में अवतार कब लेंगे?" तब कृष्ण ने कहा कि कलियुग में वो ऐसा अवतार लेंगे और उन्होंने ने कलियुग में राजा इन्द्रद्युम्न को निमित बनाकर जगन्नाथ अवतार लिया।

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा इंद्रघुम्न भगवान जगन्नाथ को शबर राजा से यहां लेकर आये थे तथा उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया इस बारे में पक्के तौर पर कुछ भी स्पष्ट नही है। ययाति केशरी ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। मौजूदा 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोलगंगदेव तथा अनंगभीमदेव ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है। मौजूदा मंदिर में भगवान जगन्नाथ की पूजा उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ होती है। इन मूर्तियों के चरण नहीं है। केवल भगवान जगन्नाथ और बलभद्र के हाथ है लेकिन उनमें कलाई तथा ऊंगलियां नहीं हैं। ये मूर्तियां नीम की लकड़ी की बनी हुई है तथा इन्हें प्रत्येक बारह वर्ष में बदल दिया जाता है। इन मूर्तियों के बारे में अनेक मान्यताएं तथा लोककथाएं प्रचलित है। यह मंदिर 20 फीट ऊंची दीवार के परकोटे के भीतर है जिसमें अनेक छोटे-छोटे मंदिर है। मुख्य मंदिर के अलावा एक परंपरागत् डयोढ़ी, पवित्र देवस्थान या गर्भगृह, प्रार्थना करने का हॉल और स्तंभों वाला एक नृत्य हॉल है। सदियों से पुरी को अनेक नामों से जाना जाता है जैसे, नीलगिरि, नीलाद्री, नीलाचल, पुरूषोत्तम, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम और जगन्नाथ पुरी। यहां पर बारह महत्वपूर्ण त्यौहार मनाये जाते हैं। लेकिन इनमें सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार जिसने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है वह रथयात्रा ही है।

रथ यात्रा
यह यात्रा आषाढ़ महीने (जून-जुलाई) मे आता है। भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ गुडिचा मंदिर पर वार्षिक भ्रमण पर जाते है जो उनके एक सगे संबधी का घर है। ये तीनों देव वहां के लिए अपनी यात्रा सजे संवरे रथों पर सवार होकर करते हैं, इसीलिए इसे रथ यात्रा अथवा रथ महोत्सव कहते हैं। इन तीनों देवों के रथ अलग-अलग होते हैं जिन्हें उनके भक्त गुंडिचा मंदिर तक खींचते हैं। नंदीघोष नामक रथ 45.6 फीट ऊंचा है जिसमे भगवान जगन्नाथ सवार होते हैं। तालध्वज नामक रथ 45 फीट ऊंचा है जिसमे भगवान बलभद्र सवार होते हैं। दर्पदलन नामक रथ 44.6 फीट ऊंचा है जिसमे देवी सुभद्रा सवार होती है। ये रथ बड़े ही विशाल होते हैं तथा इन्हें रथ में सवार देव के सांकेतिक रंगों के अनुसार ही सजाया जाता है। देवों को लाने के लिए इन रथों को मंदिर के बाहर एक परंपरा के अनुसार ही खड़ा किया जाता जिसे पहंडी बीजे कहते हैं। गजपति स्वर्णिम झाडु से सफाई करता है। केवल तभी रथों की खींचा जाता है। ये तीनों देव गुंडिचा मंदिर में सात दिनों तक विश्राम करते हैं और फिर इसी तरह से उन्हें वापस उनके मुख्य मंदिर में लाया जाता है। इस प्रकार नौ दिनों तक चलने वाला यह रथ महोत्सव समाप्त होता है। यह अनोंखा रथ महोत्सव कब से शुरू हुआ किसी को पता नहीं है। जबकि रथ शब्द ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में भी आया है तथा भगवान सूर्य का रथ पर सवार होने को भी पौराणिक कथाओं में वर्णित है। अभी भी कुछ अनुसंधानकर्ता इस रथ महोत्सव को बौध्द परंपरा से जोड़ते हैं।

महत्व
इस रथ महोत्सव का सबसे ज्यादा महत्व यह है कि इससे भक्तजनों को अपने प्रिय आराध्य देव की एक झलक मिल जाती है। जैसे भगवान आम जनता से मिलने के लिए अपने मंदिर से बाहर आये हो। यह रथ महोत्सव बेहद लोकप्रिय हो गया है और इसने इतना महत्व प्राप्त कर लिया है कि अब यह केवल पुरी तक ही सीमित नहीं है। इसी प्रकार के रथ महोत्सव देश के अलग-अलग स्थानों पर तथा विदेश में भी मनाये जाते हैं। भगवान जगन्नाथ की पूजा उड़ीसा के लोगों की भावनाओं से इस प्रकार गहराई से जुड़ गई है कि हर कोई व्यक्ति लगभग प्रत्येक गांव तथा शहर में जगह-जगह जगन्नाथ मंदिर रथ महोत्सव को देख सकता है। भगवान जगन्नाथ तथा उनका रथ महोत्सव मिलन, एकता तथा अखंडता का प्रतीक है। यद्यपि वे पुरी में विराजमान हैं फिर भी वे इस संपूर्ण ब्रह्मांड के भगवान हैं तथा उनका प्रभावशाली चिताकर्षण सार्वभौमिक है। सभी लोग उनसे संबंधित हैं एवं वे सभी से संबंधित हैं। उनके विशाल नेत्रों के सामनें सभी बराबर हैं।

रथ यात्रा और नव कालेबाड़ा पुरी के प्रसिद्ध पर्व हैं। ये दोनों पर्व भगवान जगन्नाथ की मुख्य मूर्ति से संबद्ध हैं। नव कालेबाड़ा पर्व बहुत ही महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है, तीनों मूर्तियों- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का बाहरी रूप बदला जाता है। इन नए रूपों को विशेष रूप से सुगंधित चंदन-नीम के पेड़ों से निर्धारित कड़ी धार्मिक रीतियों के अनुसार सुगंधित किया जाता है। इस दौरान पूरे विधि-विधान और भव्य तरीके से 'दारु' (लकड़ी) को मंदिर में लाया जाता है।

इस दौरान विश्वकर्मा (लकड़ी के शिल्पी) 21 दिन और रात के लिए मंदिर में प्रवेश करते हैं और नितांत गोपनीय ढंग से मूर्तियों को अंतिम रूप देते हैं। इन नए आदर्श रूपों में से प्रत्येक मूर्ति के नए रूप में 'ब्रह्मा' को प्रवेश कराने के बाद उसे मंदिर में रखा जाता है। यह कार्य भी पूर्ण धार्मिक विधि-विधान से किया जाता है।