पद्मिनी एकादशी व्रत

हिन्दू पंचांग के बारह माह में २४ एकादशी होती है। किंतु जिस वर्ष अधिकमास या मलमास होता है, उस वर्ष २ एकादशी ओर आने पर कुल २६ एकादशी हो जाती है। अधिकमास की शुक्ल पक्ष की एकादशी पद्मिनी एकादशी और कृष्ण पक्ष एकादशी हरिवल्लभा या परमा एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस वर्ष अधिकमास और वैशाख माह का संयोग हुआ है। अधिकमास में जहां श्रीकृष्ण भक्ति का महत्व है, वहीं वैशाख भगवान विष्णु भक्ति का काल है। इस काल में पद्मिनी एकादशी का व्रत धार्मिक, लौकिक और अध्यात्मिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है। मानव जीवन में कामनाओं का अंत नहीं होता। मानव जीवन में धन, सुख समृद्धि आदि अनेक कामनाएं रखता है। किंतु इन सभी कामनाओं में संतान कामना सर्वोपरि होती है। शास्त्रों में अधिक मास के परम पवित्र काल में इसी कामना पूर्ति के साथ ही सभी सुखों और पुण्य को देने वाले एकादशी व्रत का विधान बताया गया है। यह व्रत तन, मन और विचारों की पवित्रता के साथ ही मनोरथ पूरे करने वाला है। धार्मिक दृष्टि से मात्र पद्मिनी एकादशी व्रत से समस्त व्रत, यज्ञ और तपस्याओं का फल प्राप्त हो जाता है। शास्त्रों में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा स्वयं कहा गया है कि अधिकमास की पद्मिनी एकादशी बहुत पुण्य देने के साथ ही भक्ति और मुक्ति देने वाली है। यह व्रत वैष्णव और स्मार्त दोनों करते हैं। 

इस व्रत की वैज्ञानिक दृष्टि यही है कि ब्रहंड में स्थित सारे ग्रह, नक्षत्रों और पिण्डों की गति का अच्छा या बुरा प्रभाव प्रकृति और मानव जगत पर पड़ता है। इसकी पुष्टि ज्योतिष विज्ञान भी करता है। इसके अनुसार अधिकमास में सूर्य किसी राशि में परिवर्तन नहीं करता है यानि इस चंद्रमास में सूर्य का शुभ प्रभाव क्षीण हो जाता है। दूसरी ओर हर मास दोनों पक्षों की एकादशी की तिथि को चन्द्रमा की कलाओं का प्रभाव जगत के लिए शुभ माना गया है। अत: अधिक मास में सूर्य संक्रांति न होने से उसके अदृश्य अशुभ प्रभावों से बचाव और चन्द्रमा के शुभ प्रभाव को ग्रहण करने के लिए खान, पान, आचरण और विचारों के द्वारा मानव को अनुशासित किया जाता है।