वरुथिनी एकादशी

हिन्दू वर्ष के बारह महीनों में हर माह के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में एक-एक एकादशी आती है। इसी क्रम में वैसाख कृष्ण पक्ष की एकादशी वरुथिनी एकादशी के नाम से प्रसिद्ध है। वरुथिनी शब्द संस्कृत के वरुथिन् शब्द से बना है- जिसका एक अर्थ होता है प्रतिरक्षक, कवच या रक्षा करने वाला। इस व्रत का भी तन, मन और वैचारिक शुद्धि में विशेष महत्व है। यह व्रत वैशाख मास में किया जाता है, जो स्नान दान के पुण्य का मास है। यह मास और एकादशी का व्रत भगवान विष्णु की आराधना को समर्पित है। धार्मिक मान्यता है कि यह व्रत सभी दोषों और विकारों से मुक्त कराने वाला माना गया है। इस प्रकार यह मानव के लिए आत्मरक्षक ही है। यह मुख्यत: वैष्णव व्रत है, किंतु विष्णु उपासक हर धर्मावलंबी इस व्रत को करता है। वरूथिनी एकादशी महाप्रभु वल्लभाचार्य की जयंती-तिथि है। वे इस तिथि में श्री वल्लभाचार्य का जन्मोत्सव मनाते हैं। पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के लिये यह दिन विशेष महत्व का है।

एकादशी व्रत का मात्र धार्मिक महत्व ही नहीं है, यह मानसिक एवं शारीरिक पवित्रता के लिए भी महत्वपूर्ण है। किंतु इस संबंध में ज्ञान के अभाव में आज के नव शिक्षित युवा भारतीय सनातन धर्म से जुडी व्रत परंपराओं की उपेक्षा कर रहे है। 

सत्य यह है कि प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों से लेकर भारत की आजादी के महानायक महात्मा गांधी भी व्रत-उपवास के महत्व को सिद्ध कर चुके हैं । नई पीढी के लिए यह ज्ञान आवश्यक है कि यदि कोई इस व्रत को धर्म या ईश भक्ति की दृष्टि से न करें, किंतु निरोग रहने में यह व्रत महत्वपूर्ण है। यह मन को संयम रखने के भाव सिखाता है। शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करता है। 

इस व्रत का वैज्ञानिक महत्व पर विचारे करें तो चूंकि चन्द्रमा की कलाओं के घटने और बढऩे का प्रभाव सभी प्राणियों और वनस्पतियों पर पड़ता है। हिन्दु धर्म पंचांग अनुसार तिथियों पर आधारित होता है। इन तिथियों पर चन्द्रमा की स्थिति सदा एक सी रहती है। अत: उसका असर भी शरीर पर वैसा ही पडता है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि चतुर्थी तिथि से एकादशी के बीच पैदा रोग गंभीर नहीं होते । पहले के रोग भी ठीक हो जाते हैं। हर मास में दो एकादशी होती है । इस प्रकार मास में दो दिन आहार संयम रखा जाए तो यह हमारी पाचन क्रिया को बल प्रदान करता है। 

व्रतकथा
भूलोक के राजा मान्धाता ने वैसाख कृष्ण पक्ष में एकादशी का व्रत रखा था जिससे मृत्यु के बाद उनको मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। त्रेतायुग में भगवान राम के पूर्वज इछ्वाकु वंश के राजा धुन्धुमार को भगवान शिव ने एक बार श्राप दे दिया था। धुन्धुमार ने तब इस एकादशी का व्रत रखा जिससे वह श्राप से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त हुए। 


व्रत का महात्म्य - 
पद्मपुराण में इस वैसाख कृष्ण पक्ष की एकादशी व्रत का महत्व एवं विधान भगवान कृष्ण ने पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को बताया। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि वैशाख के कृष्णपक्ष की एकादशी वरूथिनी के नाम से जानी जाती है। वरूथिनी एकादशी के व्रत से दानों में श्रेष्ठ दान कन्या दान का फल मिलता है। यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करने वाली है। वरूथिनी के व्रत से सदा सुख प्राप्ति होती है। यह सबको भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। 

भक्त श्री विष्णु में मन को लगाकर श्रद्धा पूर्वक इस एकादशी का व्रत रखता है। वरूथिनी एकादशी के अनुष्ठान से मनुष्य मुक्ति पाकर वैकुण्ठ में जाता है। मान्यता के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य के कर्मों का हिसाब-किताब रखने वाले चित्रगुप्त जी भी इस एकदशी के व्रत के पुण्य को लिखने में सक्षम नहीं है।