श्राद्ध में अन्न आदि के वितरण का विधान

जब निमंत्रित ब्राह्मण भोजन से तृप्त हो जायें तो भूमि पर थोड़ा-सा अन्न डाल देना चाहिए। आचमन के लिए उन्हे एक बार शुद्ध जल देना आवश्यक है। तदनंतर भली भांति तृप्त हुए ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर भूमि पर उपस्थित सभी प्रकार के अन्न से पिण्डदान करने का विधान है। श्राद्ध के अंत में बलिवैश्वदेव का भी विधान है।
ब्राह्मणों से सत्कारित तथा पूजित यह एक मंत्र समस्त पापों को दूर करने वाला, परम पवित्र तथा अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति कराने वाला है।

सूत जी कहते हैः "हे ऋषियो ! इस मंत्र की रचना ब्रह्मा जी ने की थी। यह अमृत मंत्र हैः

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत।।
"समस्त देवताओं, पितरों, महायोगिनियों, स्वधा एवं स्वाहा सबको हम नमस्कार करते हैं। ये सब शाश्वत फल प्रदान करने वाले हैं।" (वायु पुराणः 74.16)

सर्वदा श्राद्ध के प्रारम्भ, अवसान तथा पिण्डदान के समय सावधानचित्त होकर तीन बार इस मंत्र का पाठ करना चाहिए। इससे पितृगण शीघ्र वहाँ आ जाते हैं और राक्षसगण भाग जाते हैं। राज्य प्राप्ति के अभिलाषी को चाहिए कि वह आलस्य रहित होकर सर्वदा इस मंत्र का पाठ करें। यह वीर्य, पवित्रता, धन, सात्त्विक बल, आयु आदि को बढ़ाने वाला है।

बुद्धिमान पुरुष को चाहिए की वह कभी दीन, क्रुद्ध अथवा अन्यमनस्क होकर श्राद्ध न करे। एकाग्रचित्त होकर श्राद्ध करना चाहिए। मन में भावना करे किः 'जो कुछ भी अपवित्र तथा अनियमित वस्तुएँ है, मैं उन सबका निवारण कर रहा हूँ। विघ्न डालने वाले सभी असुर एवं दानवों को मैं मार चुका हूँ। सब राक्षस, यक्ष, पिशाच एवं यातुधानों (राक्षसों) के समूह मुझसे मारे जा चुके हैं।"