श्राद्ध में पिण्डदान

श्राद्ध में पिण्डदान 

हमारे जो सम्बन्धी देव हो गये हैं, जिनको दूसरा शरीर नहीं मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर उधर विचरण करते हैं, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है।

बच्चों एवं सन्यासियों के लिए पिण्डदान नहीं किया जाता। पिण्डदान उन्हीं का होता है जिनको मैं-मेरे की आसक्ति होती है। बच्चों की मैं-मेरे की स्मृति और आसक्ति विकसित नहीं होती और सन्यास ले लेने पर शरीर को मैं मानने की स्मृति सन्यासी को हटा देनी होती है। शरीर में उनकी आसक्ति नहीं होती इसलिए उनके लिए पिण्डदान नहीं किया जाता।

श्राद्ध में बाह्य रूप से जो चावल का पिण्ड बनाया जाता, केवल उतना बाह्य कर्मकाण्ड नहीं है वरन् पिण्डदान के पीछे तात्त्विक ज्ञान भी छुपा है।

जो शरीर में नहीं रहे हैं, पिण्ड में हैं, उनका भी नौ तत्त्वों का पिण्ड रहता हैः चार अन्तःकरण और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनका स्थूल पिण्ड नहीं रहता है वरन् वायुमय पिण्ड रहता है। वे अपनी आकृति दिखा सकते हैं किन्तु आप उन्हे छू नहीं सकते । दूर से ही वे आपकी दी हुई चीज़ को भावनात्मक रूप से ग्रहण करते हैं। दूर से ही वे आपको प्रेरणा आदि देते हैं अथवा कोई कोई स्वप्न में भी मार्गदर्शन देते हैं।

अगर पितरों के लिए किया गया पिण्डदान एवं श्राद्धकर्म व्यर्थ होता तो वे मृतक पितर स्वप्न में यह नहीं कहते किः हम दुःखी हैं। हमारे लिए पिण्डदान करो ताकि हमारी पिण्ड की आसक्ति छूटे और हमारी आगे की यात्रा हो... हमें दूसरा शरीर, दूसरा पिण्ड मिल सके।

श्राद्ध इसीलिए किया जाता है कि पितर मंत्र एवं श्रद्धापूर्वक किये गये श्राद्ध की वस्तुओं को भावनात्मक रूप से ले लेते हैं और वे तृप्त भी होते हैं।