श्राद्ध में दान

श्राद्ध में दान 

श्राद्ध के अन्त में दान देते समय हाथ में काले तिल, जौ और कुश के साथ पानी लेकर ब्राह्मण को दान देना चाहिए ताकि उसका शुभ फल पितरों तक पहुँच सके, नहीं तो असुर लोग हिस्सा ले जाते हैं। ब्राह्मण के हाथ में अक्षत(चावल) देकर यह मंत्र बोला जाता हैः
अक्षतं चास्तु में पुण्यं शांति पुष्टिर्धृतिश्च मे।
यदिच्छ्रेयस् कर्मलोके तदस्तु सदा मम।।
"मेरा पुण्य अक्षय हो। मुझे शांति, पुष्टि और धृति प्राप्त हो। लोक में जो कल्याणकारी वस्तुएँ हैं, वे सदा मुझे मिलती रहें।"
इस प्रकार की प्रार्थना भी की जा सकती है।
पितरों को श्रद्धा से ही बुलाया जा सकता है। केवल कर्मकाण्ड या वस्तुओं से काम नहीं होता है।
"श्राद्ध में चाँदी का दान, चाँदी के अभाव में उसका दर्शन अथवा उसका नाम लेना भी पितरों को अनन्त एवं अक्षय स्वर्ग देनेवाला दान कहा जाता है। योग्य पुत्रगण चाँदी के दान से अपने पितरों को तारते हैं। काले मृगचर्म का सान्निध्य, दर्शन अथवा दान राक्षसों का विनाश करने वाला एवं ब्रह्मतेज का वर्धक है। सुवर्णनिर्मित, चाँदीनिर्मित, ताम्रनिर्मित वस्तु, दौहित्र, तिल, वस्त्र, कुश का तृण, नेपाल का कम्बल, अन्यान्य पवित्र वस्तुएँ एवं मन, वचन, कर्म का योग, ये सब श्राद्ध में पवित्र वस्तुएँ कही गई हैं।"
(वायु पुराणः 74.1-4)
श्राद्धकाल में ब्राह्मणों को अन्न देने में यदि कोई समर्थ न हो तो ब्राह्मणों को वन्य कंदमूल, फल, जंगली शाक एवं थोड़ी-सी दक्षिणा ही दे। यदि इतना करने भी कोई समर्थ न हो तो किसी भी द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुट्ठी काले तिल दे अथवा पितरों के निमित्त पृथ्वी पर भक्ति एवं नम्रतापूर्वक सात-आठ तिलों से युक्त जलांजलि दे देवे। यदि इसका भी अभाव हो तो कहीँ कहीं न कहीं से एक दिन का घास लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश्य से गौ को खिलाये। इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर वन में जाकर अपना कक्षमूल (बगल) सूर्य को दिखाकर उच्च स्वर से कहेः
न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्यच्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि।
तृष्यन्तु भक्तया पितरो मयैतौ भुजौ ततौ वर्त्मनि मारूतस्य।।
मेरे पास श्राद्ध कर्म के योग्य न धन-संपत्ति है और न कोई अन्य सामग्री। अतः मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ। वे मेरी भक्ति से ही तृप्तिलाभ करें। मैंने अपनी दोनों बाहें आकाश में उठा रखी हैं।
वायु पुराणः 13.58
कहने का तात्पर्य यह है कि पितरों के कल्याणार्थ श्राद्ध के दिनों में श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितरों को जो श्रद्धामय प्रसाद मिलता है उससे वे तृप्त होते हैं।