शास्त्रों में श्राद्ध विधान

जो श्रद्धा से दिया जाये उसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा मंत्र के मेल से जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते हैं। जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है। अतः श्राद्ध करके यह भावना की जाती है कि उसका अगला जीवन अच्छा हो। जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्राद्ध करते हैं वे हमारी सहायता करते हैं।

'वायु पुराण' में आत्मज्ञानी सूत जी ऋषियों से कहते हैं- "हे ऋषिवृंद ! परमेष्ठि ब्रह्मा ने पूर्वकाल में जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसे तुम सुनो। ब्रह्मा जी ने कहा हैः 'जो लोग मनुष्यलोक के पोषण की दृष्टि से श्राद्ध आदि करेंगे, उन्हें पितृगण सर्वदा पुष्टि एवं संतति देंगे। श्राद्धकर्म में अपने प्रपितामह तक के नाम एवं गोत्र का उच्चारण कर जिन पितरों को कुछ दे दिया जायेगा वे पितृगण उस श्राद्धदान से अति संतुष्ट होकर देनेवाले की संततियों को संतुष्ट रखेंगे, शुभ आशिष तथा विशेष सहाय देंगे।"

हे ऋषियो ! उन्हीं पितरों की कृपा से दान, अध्ययन, तपस्या आदि सबसे सिद्धि प्राप्त होती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वे पितृगण ही हम सबको सत्प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं।

नित्यप्रति गुरुपूजा-प्रभृति सत्कर्मों में निरत रहकर योगाभ्यासी सब पितरों को तृप्त रखते हैं। योगबल से वे चंद्रमा को भी तृप्त करते हैं जिससे त्रैलोक्य को जीवन प्राप्त होता है। इससे योग की मर्यादा जानने वालों को सदैव श्राद्ध करना चाहिए।

मनुष्यों द्वारा पितरों को श्रद्धापूर्वक दी गई वस्तुएँ ही श्राद्ध कही जाती हैं। श्राद्धकर्म में जो व्यक्ति पितरों की पूजा किये बिना ही किसी अन्य क्रिया का अनुष्ठान करता है उसकी उस क्रिया का फल राक्षसों तथा दानवों को प्राप्त होता है। 

श्राद्ध योग्य ब्राह्मण

'वराह पुराण' में श्राद्ध की विधि का वर्णन करते हुए मार्कण्डेयजी गौरमुख ब्राह्मण से कहते हैं- "विप्रवर ! छहों वेदांगो को जानने वाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राह्मण, पंचाग्नि तपने वाले, शिष्य, संबंधी तथा अपने माता पिता के प्रेमी ब्राह्मणों को श्राद्धकर्म में नियुक्त करना चाहिए।

'मनुस्मृति' में कहा गया हैः
"जो क्रोधरहित, प्रसन्नमुख और लोकोपकार में निरत हैं ऐसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों को मुनियों ने श्राद्ध के लिए देवतुल्य कहा है।" (मनुस्मृतिः 3.213)

वायु पुराण में आता हैः श्राद्ध के अवसर पर हजारों ब्राह्मणों को भोजन कराने स जो फल मिलता है, वह फल योग में निपुण एक ही ब्राह्मण संतुष्ट होकर दे देता है एवं महान् भय (नरक) से छुटकारा दिलाता है। एक हजार गृहस्थ, सौ वानप्रस्थी अथवा एक ब्रह्मचारी – इन सबसे एक योगी (योगाभ्यासी) बढ़कर है। जिस मृतात्मा का पुत्र अथवा पौत्र ध्यान में निमग्न रहने वाले किसी योगाभ्यासी को श्राद्ध के अवसर पर भोजन करायेगा, उसके पितृगण अच्छी वृष्टि से संतुष्ट किसानों की तरह परम संतुष्ट होंगे। यदि श्राद्ध के अवसर पर कोई योगाभ्यासी ध्यानपरायण भिक्षु न मिले तो दो ब्रह्मचारियों को भोजन कराना चाहिए। वे भी न मिलें तो किसी उदासीन ब्राह्मण को भोजन करा देना चाहिए। जो व्यक्ति सौ वर्षों तक केवल एक पैर पर खड़े होकर, वायु का आहार करके स्थित रहता है उससे भी बढ़कर ध्यानी एवं योगी है – ऐसी ब्रह्मा जी की आज्ञा है।

मित्रघाती, स्वभाव से ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगाने वाला, सोमरस बेचने वाला, जनसमाज में निंदित, चोर, चुगलखोर, ग्राम-पुरोहित, वेतन लेकर पढ़ानेवाला, पुनर्विवाहिता स्त्री का पति, माता-पिता का परित्याग करने वाला, हीन वर्ण की संतान का पालन-पोषण करने वाला, शूद्रा स्त्री का पति तथा मंदिर में पूजा करके जीविका चलाने वाला ब्राह्मण श्राद्ध के अवसर पर निमंत्रण देने योग्य नहीं हैं, ऐसा कहा गया है।

बच्चों का सूतक जिनके घर में हो, दीर्घ काल से जो रोगग्रस्त हो, मलिन एवं पतित विचारोंवाले हों, उनको किसी भी प्रकार से श्राद्धकर्म नहीं देखने चाहिए। यदि वे लोग श्राद्ध के अन्न को देख लेते हैं तो वह अन्न हव्य के लिए उपयुक्त नहीं रहता। इनके द्वारा स्पर्श किये गये श्राद्धादि संस्कार अपवित्र हो जाते हैं। (वायु पुराणः 78.39.40)

"ब्रह्महत्या करने वाले, कृतघ्न, गुरुपत्नीगामी, नास्तिक, दस्यु, नृशंस, आत्मज्ञान से वंचित एवं अन्य पापकर्मपरायण लोग भी श्राद्धकर्म में वर्जित हैं। विशेषतया देवताओं और देवर्षियों की निंदा में लिप्त रहने वाले लोग भी वर्ज्य हैं। इन लोगों द्वारा देखा गया श्राद्धकर्म निष्फल हो जाता है।